суббота, 27 октября 2012 г.

अलेक्सान्दर पूश्किन की कविता



 

 

   

 

 

 

 

 

 

 

 

 

प्रेमपत्र को विदाई 

विदा, प्रिय प्रेमपत्र, विदा, यह उसका आदेश था
तुम्हें जला दूँ मैं तुरन्त ही यह उसका संदेश था

कितना मैंने रोका ख़ुद को कितनी देर न चाहा
पर उसके अनुरोध ने, कोई शेष न छोड़ी राह
हाथों ने मेरे झोंक दिया मेरी ख़ुशी को आग में
प्रेमपत्र वह लील लिया सुर्ख़ लपटों के राग ने

अब समय आ गया जलने का, जल प्रेमपत्र जल
है समय यह हाथ मलने का, मन है बहुत विकल
भूखी ज्वाला जीम रही है तेरे पन्ने एक-एक कर
मेरे दिल की घबराहट भी धीरे से रही है बिखर

क्षण भर को बिजली-सी चमकी, उठने लगा धुँआ
वह तैर रहा था हवा में, मैं कर रहा था दुआ
लिफ़ाफ़े पर मोहर लगी थी तुम्हारी अंगूठी की
लाख पिघल रही थी ऐसे मानो हो वह रूठी-सी

फिर ख़त्म हो गया सब कुछ, पन्ने पड़ गए काले
बदल गए थे हल्की राख में शब्द प्रेम के मतवाले
पीड़ा तीखी उठी हृदय में औ' उदास हो गया मन
जीवन भर अब बसा रहेगा मेरे भीतर यह क्षण ।।

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय

пятница, 6 января 2012 г.

महान रूसी संगीतकार अलेक्सांदर स्क्र्याबिन




‘मैं लोगों को बताना चाहता हूँ कि वे मज़बूत और ताक़तवर हैं।’ – महान रूसी संगीतकार अलेक्सांदर स्क्र्याबिन (Alexander Scriabin) ने अपनी रचनात्मकता और जीवन के उद्देश्य को इस तरह से परिभाषित किया था। 7 जनवरी 2012 को विश्व संगीत में सामने आए इस अनूठे और दुर्लभ प्रतिभाशाली संगीतकार की 140वीं जयंती मनाई जा रही है। संगीतकार स्क्र्याबिन के एक वंशज, जो अलेक्सांदर स्क्र्याबिन स्मृति कोष के अध्यक्ष और संस्थापक हैं और जिनका नाम भी अलेक्सांदर स्क्र्याबिन ही है, संगीतकार स्क्र्याबिन के बारे में बताते हुए कहा –

वर्षों तक विद्वान और अनुसंधानकर्ता स्क्र्याबिन को एक रहस्यमयी और अनूठी प्रतिभा बताते रहे। लेकिन ऐसा नहीं है। वे सचमुच उन घटनाओं और प्रक्रियाओं को पहले से महसूस कर लेते थे, जो घटने वाली होती थीं या जो आज इतने बरस बाद हमारे दौर में घट रही हैं या फिर भविष्य में घटेंगी। स्क्र्याबिन की निजी लाइब्रेरी में प्राचीन और समकालीन दार्शनिकों की बहुत-सी किताबें थीं। वे उनके नज़रियों और दृष्टिकोणों की अध्ययन करते थे। दस्तयेव्स्की की तरह कला की भूमिका के बारे में वे कहते थे कि कला दुनिया को बदलने का काम करती है। इस तरह संगीतकार स्क्र्याबिन ने अपनी एक निजी दार्शनिक अवधारणा बना ली थी। कहना चाहिए कि उनकी यह अवधारणा कुछ भोली-भाली और सीधी-सादी अवधारणा है। अलेक्सांदर स्क्र्याबिन सबसे पहले संगीतकार ही थे, इसलिए उनकी दार्शनिक अवधारणाओं की खोज भी हमें सबसे पहले उनकी संगीत रचनाओं में ही करनी चाहिए।

स्क्र्याबिन कहा करते थे – क्या मानव की भाषा संगीत सहित अपने सभी रूपों में चेतना की ही भाषा नहीं है। हाँ, यह और बात है कि संगीत उस चेतना को भाषा के अन्य रूपों के मुकाबले कहीं अधिक स्पष्टता और गहराई के साथ अभिव्यक्त करता है। और अपनी इस बात को प्रमाणित करते हुए वे पियानो पर संगीत के उस रूप को प्रदर्शित करते थे जो दर्शन को अभिव्यक्त करता है। अपने इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उन्होंने अद्भुत स्वरों में संगीत की रचना की, एकदम नए स्वरों, नई भावनाओं को संगीत में अभिव्यक्त किया। उनके संगीत में एक नया स्वप्न, एक नई उड़ान, एक नया भावोन्माद झलकता था। और इसी संगीत में उनकी दार्शनिक अवधारणा पूरी तरह से अभिव्यक्त होती थी। यह संगीत ही स्क्र्याबिन की आत्मा के विकास को पूरी तरह से दर्शाता है, जो संकोच और संयम से अपने पूरे आत्मानुमोदन तक, स्वानुमोदन तक पहुँचती है। उनकी प्रसिद्ध संगीत रचना ‘भावोन्माद’ में यह विकास स्पष्ट रूप से लक्षित होता है। इस शानदार रचना पर काम करते हुए, रचनाकार के रूप में मानव की असीमित क्षमता के बारे में स्क्र्याबिन के मन में इतना ज़्यादा विश्वास पैदा हो गया था कि एक बार अपने साथी, मार्क्सवादी गिओर्गी प्लेखानोव के साथ एक ऊँचे पुल पर से गुज़रते हुए उन्होंने प्लेखानोव से कहा – मैं इस पुल से कूदूँगा और सिर के बल ज़मीन पर नहीं गिरूँगा, बल्कि हवा में ही लटका रह जाऊँगा क्योंकि में ऐसा ही चाहता हूँ। गिओर्गी प्लेखानोव ने इसके उत्तर में व्यंग्य मिश्रित स्वर में बस इतना ही कहा – कोशिश कर देखिए। लेकिन अलेक्सांदर स्क्र्याबिन ने इस तरह का प्रयोग करने की हिम्मत नहीं की।

इस तरह की पूरी हिम्मत, पूरा विश्वास सिर्फ़ उनकी रचनाओं में ही सामने आया, हालाँकि वे संगीत में जो भाव प्रस्तुत करना चाहते थे, उन्हें पूरी तरह से पेश नहीं कर पाए। अकाल मृत्यु होने के कारण वे अपनी सिम्फ़नी संगीत रचना ‘प्रोमेतेय’ में संगीत और रंगों के समागम का जो विचार अभिव्यक्त करना चाहते थे, वह अधूरा रह गया। जबकि स्क्र्याबिन के लिए इसका सैद्धांतिक महत्त्व था। उनकी श्रवण शक्ति रंगीन थी यानी वे संगीत के स्वरों में अभिव्यक्त रंगों को पहचान लेते थे। उन्होंने संगीत के कुछ स्वरों को रंगों और प्रकाश के लिए तय कर दिया था और इस तरह संगीत और रंगों के समागम की एक पूरी व्यवस्था का निर्माण कर दिया था। यही नहीं संगीतकार अलेक्सांदर स्क्र्याबिन ने एक गोल घेरे में रंगीन बल्बों को बांधकर एक ऐसा उपकरण भी तैयार कर लिया था जो उस समय जलने लगता था, जब स्क्र्याबिन अपने घर में अपने पियानो पर ‘प्रोमेतेय’ रचना का वादन करते थे। संगीत और रंगों के इस समागम को देखकर ‘प्रोमेतेय’ संगीत रचना के श्रोता आश्चर्यचकित रह जाते थे।

लेकिन ये सब तैयारियाँ संगीतकार स्क्र्याबिन ने अपनी उस मुख्य संगीत-रचना की प्रस्तावना के रूप में की थीं, जिसे उन्होंने ‘रहस्य’ या ‘मिस्टरी’ नाम दिया था। यह संगीत रचना स्वरों को न सिर्फ़ रंगों और गंधों से बल्कि कविता, सुनम्यता यानी लोच और वास्तु-स्वरों से भी जोड़ देती। लेकिन अलेक्सांदर स्क्र्याबिन इस संगीत रचना का सिर्फ़ आरंभिक अंश ही रच पाए। ‘रहस्य’ या ‘मिस्टरी’ नामक इस रचना का यह आरंभिक अंश मानव को, श्रोता को उसकी उपस्थिति भुलाकर उसे पृथ्वी और भौतिकता से दूर कहीं सितारों में, ब्रह्मांड में ले जाता है...

अलेक्सांदर स्क्र्याबिन की मृत्यु सिर्फ़ 43 वर्ष की उम्र में हो गई। आज भी बहुत से लोग उस प्रतिभाशाली संगीतकार के विचारों को आगे बढ़ाने, उनकी अवधारणा पर आगे काम करने की कोशिश करते हैं। लेकिन वास्तव में आज तक ऐसा कोई संगीतकार पैदा नहीं हुआ, जिसने अलेक्सांदर स्क्र्याबिन की अवधारणा को आगे बढ़ाया हो। अलेक्सांदर स्क्र्याबिन के वंशज और उनके हमनाम अलेक्सांदर स्क्र्याबिन ने आगे कहा –

आज स्क्र्याबिन के विचारों और उनकी अवधारणा पर अमल करने की तकनीकी संभावनाएँ पैदा हो गई हैं। लेकिन आज भी वास्तव में कोई उन विचारों पर अमल नहीं कर पाया है, जो उन्होंने सोचे थे। स्क्र्याबिन ने अपनी रचनाओं में जो अभिव्यक्त किया था, उसे महसूस करने के लिए व्यक्ति को बहुत ज़्यादा विकसित होना चाहिए, उसे बहुत ज़्यादा संवेदनशील और सुष्मग्राही होना चाहिए। इसलिए हम कह सकते हैं कि अभी तक कला का संश्लेषण नहीं हुआ है।

संगीतकार अलेक्सांदर स्क्र्याबिन अपने उस दौर की तरह ही आज भी हम से बहुत दूर कहीं भविष्य में छिपे बैठे हैं।

среда, 4 января 2012 г.


जापानी कवि ज्यून तकामी की कुछ कविताएँ
(रूसी भाषा से अनूदित)

1. रचनात्मकता

बादलों को कौन चलाता है
धकेलता है कौन उन्हें
हवा के सिवा?
पर हवा को कौन देता है गति
कोई तो होगा ?

कौन है जो चुपचाप पेड़ों को लादता है फलों से
कौन है जो मुझसे लिखवाता है कविता
कोई तो होगा ?

क्या एक ही है यह 'कोई तो' ?
जो फलों से लाद देता है पेड़ों को
और हवा को देता है गति

गति देने वाले इस 'कोई तो' को
और फल लादने वाले इस चुप्पा को
अब महसूस कर रहा हूँ मैं
अपने मन के भीतर गहरे कहीं ।


2. हर टहनी पर एक फूल


झपकी आ गई
और मैंने देखा एक सपना

हर पेड़ की
हर टहनी पर
खिला हुआ है एक फूल

जैसे खिला हो मन
इस दुनिया में
हर किसी का

3. अनुभव

मैं लेटा हुआ था
औ' दीवार पर लगे आईने में
झलक रहा था बग़ीचा

तभी कोशिश की मैंने
यह देखने की—

कैसे समा जाती है हरियाली
इस आईने में

अचानक
आकाश की चमक से
मेरी आँखें चौंधियाईं
और मुझे चक्कर आने लगा

मेरी जान निकल गई
सिर घूम रहा था
और बेतहाशा
दर्द हो रहा था मेरे सिर में

4. ताज़ा हरियाली

एक बार
खिड़की से
बग़ीचे में झाँकते हुए
अचानक मैंने छू लिया

कुछ जीवों का
जीवन ।


5. ठकठकाहट

ठक ! ठक ! ठक !
वैद्य बजाता है उँगलियाँ
मेरी छाती पर
और पूछता है रहस्य मेरी देह का

ठक ! ठक ! ठक !
मेरी छाती घरघराती है
और बताती है रहस्य मेरे गेह का

ठक ! ठक ! ठक !
मन होता हूँ
मैं भी खटखटाऊँ किसी का दिल
जो खोल दे अपना मन मेरे लिए ।

6. टहनियों की कँपकँपाहट

वहाँ
शिखर पर
थरथरा हैं पत्तियाँ
जैसे काँप रही हों हवा में

या हो सकता है
आ बैठा हो कोई पक्षी
उनकी छाया में

कोमल टहनियों की यह
अनायास धुकधुकी
आतंक और आवेश से
काँपता है मेरा मन

7. कुकुरमुत्ता

बारिश के
दिन थे

मौसम
साफ़ हुआ जब
कवि-पत्नी मुझे देखने आई
अख़बार के लिफ़ाफ़े में
कुकुरमुत्ते लाई

कवि-पत्नी
चित्रकार-पत्नी
एलेन फ़ुरमान की तरह थी
जैसा रुबेन्स ने उसे रचा है चित्रों में

और
कुकुरमुत्ते
कुकुरमुत्तों की तरह


8. अविचल पेड़

बहते समय के पार
समय शाश्वत दिखाई देता है
बहते बादलों के पार
नीला आकाश

बादल चलते रहते हैं
आकाश रहता अचल
हवा चलती रहती है
पेड़ अविचल
आज अचानक दो कविताएँ लिख दीं। आज चार जनवरी 2012 के दिन।

जीवन-दो कविताएँ
1.
वहाँ
ऊपर पेड़ पर
काँपती है पत्ती

यहाँ
नीचे देह में
काँपता है मन

कितना
अस्थिर है जीवन

2.
चलते रहो,
चलते रहो
बादलों की तरह चलते रहो

चलते रहो हवा की तरह
प्रकाश की तरह
ध्वनि की तरह
समय की तरह चलते रहो लगातार

चरैवेति-चरैवेति
ब्रह्माण्ड में ग्रहों की तरह
पृथ्वी की तरह लगातार घूमते रहो
नदी की तरह बहते रहो जीवन